Saturday 5 March 2016

मेसान

मेसान एक क्वार्क(q) और एक प्रतिक्वार्क(q bar) से बना होता है।
मेसान का एक उदाहरण पाइआन(pion π+) है,जोकि एक अप क्वार्क और एक डाउन प्रतिक्वार्क से बना होता है। मेसान का प्रतिकण मे क्वार्क और प्रतिक्वार्क की स्थिती परिवर्तित हो जाती है इसलिए प्रति-पाइआन(π)  एक डाउन क्वार्कऔर एक अप प्रतिक्वार्क बना होता है।
मेसान एक कण और एक प्रतिकण से बने होते है और अस्थायी होते है। केआन(K) मेसान की आयु सभी मेसान मे सबसे ज्यादा होती है जो कि विचित्र है। इसलिए इसके एक घटक क्वार्क को विचित्र (स्ट्रेन्ज) नाम दिया गया है।
मेसान कण सारणी
मेसान कण सारणी (पोष्टर आकार के लिए क्लीक करें)

हेड्रान, बारयान और मेसान

सामाजिक हाथीयों की तरह क्वार्क हमेशा समूह मे रहते है, वे कभी भी अकेले नही पाये जाते है। क्वार्क से बने यौगिक कण हेड्रान कहलाते है।
हेड्रान
एक क्वार्क का विद्युत आवेश भिन्नात्मक होता है लेकिन वे इस तरह मिलकर किसी कण का निर्माण करते है कि कुल विद्युत आवेश हमेशा पूर्णांक होता है। हेड्रान का एक और गुणधर्म यह है कि इन रंग हमेशा रंगहीन होता है, जबकि क्वार्को का अपना रंग होता है। इसे हम आगे देखेंगे।
हेड्रान के दो प्रकार होते है :बारयान और मेसान
बारयान
बारयानबारयान यह तीन क्वार्क से बने होते है। प्रोटान और न्युट्रान भी बारयान है। प्रोटान(uud) दो अप और एक डाउन क्वार्क से बना होता है। वहीं न्यूट्रॉन(ddu) दो डाउन और एक अप क्वार्क से बना होता है।
बारयान कण सारणी
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क्वार्क क्या है?

क्वार्क क्या है?

क्वार्क परिवार
क्वार्क परिवार
क्वार्क पदार्थ कणो का एक मूलभूत प्रकार है, इसे और तोड़ा नही जा सकता है। अधिकतर पदार्थ जो हम अपने आसपास देखते है वह प्रोटान और न्युट्रान से निर्मित है। और ये प्रोटान तथा न्युट्रान क्वार्क से बने होते है। हमारे आस पास का समस्त पदार्थ इन्ही क्वार्को से निर्मित है।
कुल छः क्वार्क होते है लेकिन भौतिकवैज्ञानिक उन्हे तीन युग्मो मे रखते है : अप/डाउन, चार्म/स्ट्रेन्ज तथा टाप/बाटम। (इन सभी क्वार्को के अपने प्रति-क्वार्क भी होते है।) इन क्वार्को के नाम विचित्र है इसलिये इन्हे याद रखना आसान है।
क्वार्क एक असामान्य गुण रखते है, इनका विद्युत आवेश भिन्न मे होता है, जोकि प्रोटान(+1) और इलेक्ट्रान(-1) के पूर्णांक आवेश से अलग है। क्वार्क का एक और भिन्न गुणधर्म होता है, रंग आवेश(colour charge)। इसे हम आगे देखेंगे।
सबसे दुर्लभ क्वार्क टाप है, जो 1995 मे खोजा गया लेकिन इसकी संकल्पना इसके 20 वर्षो पहले ही हो चुकी थी।

प्रतिपदार्थ क्या है?

प्रतिपदार्थ क्या है?

बबल चैम्बर
बबल चैम्बर
रूकीये रूकीये, थोड़ा धीमे! “प्रतिपदार्थ ?”,”ऊर्जा ?” यह सब क्या है, स्टार ट्रेक ?
प्रतिपदार्थ की संकल्पना विचीत्र है। यह उस समय और विचीत्र हो जाती है सारा का सारा ब्रह्मान्ड पदार्थ से निर्मित लगता है। सामान्य बुद्धि के अनुसार पदार्थ की मात्रा और प्रति-पदार्थ की मात्रा समान होना चाहीये लेकिन ऐसा नही है। हम जितना भी ब्रह्मांड दे सकते है, सारा का सारा ब्रह्मांड पदार्थ से निर्मित है। प्रति-पदार्थ हमारी ब्रह्माण्ड से संबधित हर जानकारी के विपरीत लगता है।
लेकिन आप प्रतिपदार्थ के प्रमाण शुरुवाती बबल चैम्बर( bubble chamber ) के चित्र मे देख सकते है। इस कक्ष मे उपस्थित चुंबकीय क्षेत्र ऋण आवेश के कणो को बांये मोड़ता है तथा धन आवेश के कणो को दायें। इस चित्र मे कई इलेक्ट्रान और पाजीट्रान युग्म अज्ञात से उत्पन्न होते दिखायी देते है, लेकिन वास्तविकता मे वे फोटान से निर्मित है और फोटान अपनी कोई निशानी नही छोड़ता है। पाजीट्रान वस्तुतः प्रति-इलेक्ट्रान है, वह इलेक्ट्रान के जैसे ही है लेकिन धन आवेश युक्त होने के कारण दायें मुड़ता है। चित्र मे एक इलेक्ट्रान-पाजीट्रान युग्म को दिखाया गया है।
यदि प्रतिपदार्थ और पदार्थ एक जैसे ही है लेकिन विपरीत आवेश के है, तब ब्रह्माण्ड मे प्रतिपदार्थ की तुलना मे पदार्थ ज्यादा क्यों है?
ह्म्म … इसका उत्तर हम अभी अच्छी तरह से नही जानते है। इस प्रश्न से कई भौतिक वैज्ञानिकों की नींद उड़ी हुयी है।
(सामान्यतः किसी प्रतीकण का चिह्न उससे संबधित कण के उपर एक रेखा(बार) बनाकर होता है।) उदाहरण के लिए “अप क्वार्क u” से संबधित “अप प्रति क्वार्क” को ü से दर्शाया जाता है, इसे यु-बार पढ़ते है। क्वार्क का प्रति कण प्रति-क्वार्क है, प्रोटान का प्रतिकण प्रतिप्रोटान और ऐसे ही सभी कणो के अपने अपने प्रतिकण है। प्रतिइलेक्ट्रान को पाजीट्रान कहते है और इसे e+ से दर्शाते है।)

पदार्थ और प्रतिपदार्थ

पदार्थ और प्रतिपदार्थ

अभी तक हमने जितने भी पदार्थ कण खोजे है, उन सभी पदार्थ कणो का एक प्रतिपदार्थ कण या प्रति कण मौजूद है
प्रति कण अपने संबधित कण के जैसे ही दिखते और व्यवहार करते है लेकिन उनका आवेश विपरीत होता है। उदाहरण के लिए प्रोटान का धनात्मक आवेश होता है लेकिन प्रतिप्रोटान का आवेश ऋणात्मक होता है।  गुरुत्वाकर्षण आवेश से प्रभावित नही होता है लेकिन द्रव्यमान से प्रभावित होता है इसलिये पदार्थ और प्रतिपदार्थ दोनो पर गुरुत्वाकर्षण का समान व्यवहार होता है।  पदार्थ कण का द्रव्यमान प्रतिपदार्थ कण के समान ही होता है।
जब पदार्थ कण प्रति-पदार्थ कण से टकराता है, दोनो नष्ट होकर ऊर्जा मे बदल जाते है।
अप क्वार्क तथा प्रति अप क्वार्क का टकराव

क्वार्क और लेप्टान

क्वार्क और लेप्टान

अभी तक आपने पढा़ है कि आकाशगंगा से लेकर पर्वत से लेकर अणु तक सब कुछ क्वार्क और लेप्टान से बना है। लेकिन यह पूरी कहानी नही है। क्वार्क का व्यवहार लेप्टान से भिन्न होता है। हर पदार्थ कण का एक प्रतिपदार्थ कण(antimatter particle) होता है।
आकाशगंगा, पर्वत तथा जल अणु

Thursday 3 March 2016

सौर पाल : भविष्य के अंतरिक्षयानो को सितारों तक पहुंचाने वाले प्रणोदक

सौर पाल(Solar Sail) अंतरिक्ष यानो की प्रणोदन प्रणाली है जोकि तारो द्वारा उत्पन्न विकिरण दबाव के प्रयोग से अंतरिक्षयानो को अंतरिक्ष मे गति देती है। राकेट प्रणोदन प्रणाली मे सीमित मात्रा मे इंधन होता है लेकिन सौर पाल वाले अंतरिक्षयानो के पास वास्तविकता मे सूर्य प्रकाश के रूप मे अनंत इंधन होगा। इस तरह का असीमित मात्रा मे इंधन किसी भी अंतरिक्षयान द्वारा अंतरिक्ष मे खगोलिय दूरीयों को पार कराने मे सक्षम होगा।
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यह कैसे कार्य करता है ?

सौर पाल फोटान अर्थात प्रकाश कणो से ऊर्जा ग्रहण करते है जोकि सौर पाल की दर्पण नुमा परावर्तक सतह से टकराकर वापस लौटते है। हर फोटान का संवेग होता है, यह संवेग फोटान के टकराने पर सौर पाल की परावर्तक सतह को स्थानांतरित हो जाता है। हर फोटान अपने संवेग का दुगना संवेग सौर पाल को स्थानांतरित करता है। अरबो की संख्या मे फोटान किसी विशाल सौर पाल से टकराने पर उसे पर्याप्त मात्रा मे प्रणोद प्रदान करने मे सक्षम होते है।
सौर पाल मे प्रयुक्त परावर्तक पदार्थ किसी कागज से 40 से 100 गुणा पतले होते है तथा इस पाल को फैलाने पर वे पाल के लिये निर्मित ढांचे पर दृढ़ रूप से बंध जाते है और अंतरिक्षयान को प्रणोदन देने मे सक्षम होते है। अंतरग्रहीय यात्राओं के लिये सौर पाल का क्षेत्रफल एक वर्ग किमी चाहीये। वर्तमान के सौर पाल वाले अभियानो का आकार बहुत कम है और वे जांच तथा तकनीकी प्रदर्शन के लिये ही बनाये गये है।
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सौर पाल का संक्षिप्त इतिहास

  1. 1610 :गणितज्ञ जोहानस केप्लर ने कहा था कि किसी धूमकेतु की पुंछ सूर्य के कारण निर्मित हो सकती है। उन्होने गैलेलियो को लिखे पत्र मे कहा था कि सूर्य की इस विशिष्ट क्षमता से ग्रहो के मध्य यात्रा करने के लिये यान बनाये जा सकते है।Solarsail2
  2. 1864 :स्काटलैंड के वैज्ञानिक जेम्स क्लार्क मैक्सवेल विद्युतचुंबकीय क्षेत्र तथा विकिरण के सिद्धांत के प्रतिपादक थे। उनके सिद्धांत के अनुसार प्रकाश का संवेग होता है और यह संवेग पदार्थ पर दबाव डालता है। उनके समीकरणो ने सौरपाल के लिये सैद्धांतिक आधार दिया था।solarsail3
  3. 1899 :रूसी वैज्ञानिक पीटर लेबेडेफ़(Peter Lebedev) ने टार्सनल संतुलन द्वारा प्रकाश के दबाव का सफल प्रदर्शन किया था।Solarsail4
  4. 1925: राकेट विज्ञान तथा अंतरिक्षयानो के प्रवर्तक फ़्रेडरिक ज़ेण्डर ने एक शोध पत्र मे सौर पाल की अवधारणा मे विशाल आकार के पतली परत वाले दर्पण तथा सूर्य प्रकाश के दबाव से खगोलिय गति प्राप्त करने का विचार प्रस्तुत किया।solarsail5

solarsail6प्रारंभिक जांच और प्रयास

  1. मैरिनर 10(Mariner 10) :यह बुध ग्रह तक पहुंचने वाला प्रथम यान था तथा इसने उंचाई नियंत्रण करने के लिये सौर दबाव का प्रयोग किया था। इस यान को 1973 मे प्रक्षेपित किया गया था।
  2. झ्नम्या 2(Znmya -2)  : रूसी अंतरिक्ष केन्द्र मिर(Mir) द्वारा 20 मीटर चौड़े विशाल परावर्तक को फैलाया गया था, लेकिन इस प्रयोग मे प्रणोदन की पुष्टि नही हुयी।
  3. एस्ट्रो-एफ़(Astro-F) :2006 मे अकारी अंतरिक्षयान(Akari) के साथ 15 मिटर व्यास के सौर पाल का प्रक्षेपण किया गया था। यह यान कक्षा मे स्थापित हो गया लेकिन सौर पाल फ़ैल ना पाने से अभियान असफ़ल रहा।
  4. नैनोसेल डी(Nanosail-D) – 2008 मे नासा ने स्पेसएक्स फ़ाल्कन 1 यान के साथ एक सोलर पाल प्रक्षेपण का प्रयास किया लेकिन राकेट कक्षा मे नही पहुंच पाया और प्रशांत महासागर मे जा गिरा।
  5. इकारास(IKAROS) :जुन 2010 मे जापान द्वारा प्रक्षेपित यह विश्व का सर्वप्रथम अंतरग्रहीय सौर पाल वाला सफ़ल यान था।
  6. नैनोसेल डी2(Nanosail D2) :  नासा का सौर पाल मे यह द्वितिय प्रयास था और इसे नवंबर 2010 मे प्रक्षेपित किया गया। इस यान ने जनवरी 2011 मे अपने सौर पाल को सफलता पूर्वक फ़ैला दिया।

प्रकाश सौर पाल : 40 वर्षो की निर्माण गाथा

  1. 1976 मे खगोल वैज्ञानिक कार्ल सागन ने विश्व के सामने द जानी कार्सन शो मे सौर पाल वाले अंतरिक्षयान के एक प्रोटोटाईप
    को प्रस्तुत किया।
  2. चार वर्ष पश्चात कार्ल सागन मे लुई फ़्रीडमन तथा ब्रुस मुर्रे के साथ द प्लेनेटरी सोसायटी की स्थापना की जिसका उद्देश्य अंतरिक्ष अन्वेषण को बढ़ावा देना था।
  3. 2001 तथा 2005 मे द प्लेनेटरी सोसायटी ने कासमस स्टुडियो तथा रशीयन एकेडमी आफ़ साइंसेस के साथ मिलकर दो सौर पाल वाले प्रयोग किये। दोनो असफल रहे।
  4. कार्ल सागन के 75 वे जन्मदिन 9 नवंबर 2009 को द प्लेनेटरी सोसायटी ने तीन प्रयोगो की घोषणा की जिन्हे लाइट्सेल 1,2 तथा 3 नाम दिये गये।
  5. 2010 मे बिल नाय (Bill Nye) द प्लेनेटरी सोसायटी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बने, अब वे लाईट्सेल का कार्यभार देखेंगे।
  6. मई 2015 मे नाय ने लाइटसेल -A के लिये राशि जमा करने का अभियान आरंभ किया, इसे अब तक 12 लाख की राशि दान मे मिली है।
  7. 8 जुन 2015 को लाइट्सेल A सफलता पुर्वक कक्षा मे स्थापित हो गया और अपनी सौर पाल को फैलाने मे सफ़ल रहा। यह द प्लेनेटरी सोसायटी के लिये ऐतिहासिक क्षण था।
  8. अप्रैल 2016 मे द प्लेनेटरी सोसायटी लाइट सेल 1 प्रक्षेपित करने जा रहा है जोकि उनका पहला पूर्ण आकार का सौर पाल अंतरिक्षयान होगा। पाल को फैलाने पर उसका आकार 32 मिटर होगा, इसका आकार इतना है कि इसे पृथ्वी से देखा जा सकेगा।

निकोलस कोपरनिकस : महान खगोलशास्त्री

विश्व के दो समकालीन महान खगोलशास्त्रियों का जन्मदिन फ़रवरी माह में है, निकोलस कोपरनिकस तथा गैलेलियो गैलीली। गैलिलियो (Galilio) से लगभग एक शताब्दी पहले 19 फ़रवरी 1473 को पोलैंड में निकोलस कोपरनिकस का जन्म हुआ था।
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निकोलस कोपरनिकस पहले योरोपियन खगोलशास्त्री है (First European Astronaut) जिन्होने पृथ्वी को ब्रह्माण्ड के केन्द्र से बाहर किया। अर्थात हीलियोसेंट्रिज्म (Heliocentrizm) का सिद्धांत दिया जिसमे ब्रह्माण्ड  का केंद्र पृथ्वी ना होकर सूर्य था। इससे पहले पूरा योरोप अरस्तू के मॉडल पर विश्वास करता था, जिसमें पृथ्वी ब्रह्माण्ड का केन्द्र थी तथा सूर्य, तारे तथा दूसरे पिंड उसके गिर्द चक्कर लगा रहे थे। कोपरनिकस ने इसका खंडन किया।
सन 1530 में कोपरनिकस की पुस्तक “De Revolutionibus” प्रकाशित हुई, जिसमें उसने बताया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती हुई एक दिन में चक्कर पूरा करती है, और एक साल में सूर्य की परिक्रमा पूरा करती है। कोपरनिकस ने तारों की स्थिति ज्ञात करने के लिए “प्रूटेनिक टेबिल्स (Prutenic Tables)” की रचना की जो अन्य खगोलविदों के बीच काफ़ी लोकप्रिय हुईं।

जीवन वृतांत

कोपरनिकस का ब्रह्मांड
कोपरनिकस का ब्रह्मांड
अरस्तु का ब्रह्माण्ड
अरस्तु का ब्रह्माण्ड
निकोलस कोपरनिकस का जन्म 19 फरवरी, 1473 को पौलैंड के विस्तुला नदी के किनारे बसे थोर्न में हुआ। उनके बचपन का नाम था कोपरनिक, जिसका अर्थ होता है विनम्र।
जब वह दस वर्ष के थे तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई और उनका लालन-पालन उनके मामा लुक्स वाक्झेनरोड ने किया। चूंकि उनके मामा का संपर्क पोलैंड के ख्यातिप्राप्त लोगों से था इसलिए उन्हें पढ़ाई और स्कूल में प्रवेश में कभी दिक्कत नहीं हुई।
कोपरनिकस का ज्योतिष और गणित की ओर रुझान बढ़ा। उन्होंने तीन साल तक चिकित्सा , कला और खगोलशास्त्र का अध्ययन किया।
उन्होंने 1491 में तत्कालीन यूनिवर्सिटी ऑफ क्राकौ से मैट्रिक पास किया। पाडुआ विविद्यालय से उन्होंने चिकित्सा और दर्शनशास्त्र में डिग्री ली लेकिन उन्होंने अपना करियर खगोलशास्त्र में बनाया और 1499 में रोम विश्वविद्यालय में खगोलशास्त्र के अध्यापक के रूप मे कार्य प्रारंभ किया।
बाद में वे विश्वविद्यालय छोड़कर धर्म प्रचारक बन गए। युवावस्था से तीस वर्ष तक वे गणित का सहारा लेकर अपनी मान्यताओं को सिद्ध करने और उन्हें पूरी तरह सही करने की कोशिश करते रहे।
उनकी पुस्तक ‘ऑन द रिवोल्यूशन्स ऑफ द सेलेलिस्टयल स्फेयर’ का प्रकाशन उनकी मौत के बाद हुआ। उनके मन में इसे प्रकाशित करने की झिझक थी।  आखिरकार उनके एक गहरे मित्र टिडमान गाइसीयस ने इस पुस्तक को प्रकाशित करवाया। इस किताब को आधुनिक खगोलशास्त्र की शुरुआत माना जाता है।
उनकी खोज को विज्ञान जगत में मानक माना जाता है। उन्होंने यह निष्कर्ष बिना किसी यंत्र का उपयोग किये किया। वे घंटों नंगी आंख से अंतरिक्ष को निहारते रहते थे और गणितीय गणनाओं द्वारा सही निष्कर्ष प्राप्त करने की कोशिश करते थे।
खगोलशास्त्री होने के साथ-साथ कोपरनिकस गणितज्ञ, चिकित्सक, अनुवादक, कलाकार, न्यायाधीश, गवर्नर और अर्थशास्त्री भी थे। वे जहां लैटिन, जर्मन और पॉलिश धाराप्रवाह बोलते थे, वहीं ग्रीक और इटैलियन पर भी पूरा अधिकार रखते थे।
उनके अधिकतर शोध लैटिन में छपे हैं क्योंकि उस दौर यही यूरोप की भाषा थी। रोमन कैथोलिक चर्च और पोलैंड के रॉयल कोर्ट की भाषा भी लैटिन ही थी, हालांकि उन्होंने जर्मन में भी छिटपुट लिखा है।
1542 आते-आते वे एपोप्लेक्सी और पक्षाघात के शिकार हुए और 24 मई, 1543 को उनका निधन हो गया।

कोपरनिकस का योगदान

कोपरनिकस के अन्तरिक्ष के बारे में सात नियम जो उसकी किताब में अंकित हैं, इस प्रकार हैं :
  • सभी खगोलीय पिंड किसी एक निश्चित केन्द्र के परितः नहीं हैं।
  • पृथ्वी का केन्द्र ब्रह्माण्ड का केन्द्र नहीं है। वह केवल गुरुत्व व चंद्रमा का केन्द्र है।
  • सभी गोले (आकाशीय पिंड) सूर्ये के परितः चक्कर लगाते हैं। इस प्रकार सूर्ये ही ब्रह्माण्ड का केन्द्र है। (यह नियम असत्य है।)
  • पृथ्वी की सूर्य से दूरी, पृथ्वी की आकाश की सीमा से दूरी की तुलना में बहुत कम है।
  • आकाश में हम जो भी गतियां देखते हैं वह दरअसल पृथ्वी की गति के कारण होता है। (आंशिक रूप से सत्य)
  • जो भी हम सूर्य की गति देखते हैं, वह दरअसल पृथ्वी की गति होती है।
  • जो भी ग्रहों की गति हमें दिखाई देती है, उसके पीछे भी पृथ्वी की गति ही जिम्मेदार होती है।
विशेष बात यह है कि कोपरनिकस ने ये निष्कर्ष बिना किसी प्रकाशिक यंत्र के उपयोग के प्राप्त किए। वह घंटों नंगी आँखों से अन्तरिक्ष को निहारता रहते थे और गणितीय गणनाओं द्वारा सही निष्कर्ष प्राप्त करने की कोशिश करते थे। बाद में गैलिलियो ने जब दूरदर्शी का आविष्कार किया तो उसके निष्कर्षों की पुष्टि हुई।
खगोलशास्त्री होने के साथ साथ कोपरनिकस र्थशास्त्री भी थे। उन्होने मुद्रा के ऊपर शोध करते हुए ग्रेशम के प्रसिद्ध नियम को स्थापित किया, जिसके अनुसार ख़राब मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। उसने मुद्रा के संख्यात्मक सिद्धांत का फार्मूला दिया। कोपरनिकस के सुझावों ने पोलैंड की सरकार को मुद्रा के स्थायित्व में काफ़ी सहायता दी।

विश्व  कोपरनिकस के योगदानों को शायद ही भुला पाये।

प्रकाशगति का मापन

प्रकाशगति का मापन कैसे किया गया ? यह प्रश्न कई बार पुछा जाता है और यह एक अच्छा प्रश्न भी है। 17 वी सदी के प्रारंभ मे और उसके पहले भी अनेक वैज्ञानिक मानते थे कि प्रकाश की गति जैसा कुछ नही होता है, उनके अनुसार प्रकाश तुरंत ही कोई कोई भी दूरी तय कर सकता है। अर्थात प्रकाश शून्य समय मे कोई भी दूरी तय कर सकता है।
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गैलेलियो का प्रयास

lanternanimलेकिन गैलेलियो गैलीली इस से सहमत नही थे तथा उन्होने प्रकाशगति मापने के लिये प्रयोग करने का निश्चय किया। वे और उनके सहयोगी ने ढक्कन वाली लालटेन ली और वे एक दूसरे से एक मील दूरी पर दो पहाड़ीयों के शिर्ष पर जा पहुंचे। गैलेलियो ने अपने सहयोगी को निर्देश दिया था कि जैसे ही वह अपनी लालटेन का ढक्कन हटायेंगे, सहयोगी उनकी लालटेन के प्रकाश को देखकर अपनी लालटेन का ढक्कन हटायेगा। गैलेलीयो दूसरी पहाड़ी के शिर्ष से आनेवाले प्रकाश द्वारा लगनेवाले समय का मापन करेंगे।
इस समय को दूरी से विभाजित करने पर प्रकाश गति मिल जायेगी। यह प्रयोग बूरी तरह असफल रहा। कारण सरल था, प्रकाशगति इतनी अधिक है कि एक मील की दूरी तय करने उसे अत्यंत नगण्य समय लगा, केवल 0.0000005 सेकंड! गैलेलियो के पास समय के इतने छोटे भाग के मापन के लिये कोई उपकरण ही नही था।
अर्थात आपको प्रकाशगति के मापन के लिये लंबी दूरी वाले प्रयोग करने होंगे, लाखो करोड़ो मील दूरी के! इतनी विशाल दूरी के प्रयोग कैसे किये जाये ?

ओल रोमर का प्रयास

हब्बल अंतरिक्ष वेधशाला द्वारा लिया गया बृहस्पति, चंद्रमा आयो तथा आयो की छाया का चित्र।
हब्बल अंतरिक्ष वेधशाला द्वारा लिया गया बृहस्पति, चंद्रमा आयो तथा आयो की छाया का चित्र।
1670 मे एक डेनिश खगोल वैज्ञानिक ओल रोमर (Ole Roemer) बृहस्पति के चंद्रमा आयो(Io) का निरीक्षण कर रहे थे। चित्र मे बृहस्पति पर दिखायी दे रहा काला धब्बा आयो की छाया है। आयो बृहस्पति की एक परिक्रमा करने मे 1.76 दिन का समय लेता है और परिक्रमा मे लगने वाला यह समय हमेशा समान रहता है। रोमर ने सोचा कि वे आयो की गति की सटिक गणना कर सकते है। लेकिन वह उस समय आश्चर्यचकित रह गये जब उन्होने पाया कि यह चंद्रमा वर्ष मे हमेशा उसी समय पर दिखायी नही देता था, कभी वह समय से पहले दिखायी देता था, कभी वह समय से पहले दिखायी देता था।
यह विचित्र था, आयो बृहस्पति परिक्रमा मे कभी तेज, कभी धीमे क्यों करता था ?
रोमर परेशान हो गये, कोई भी इसका संतोषजनक उत्तर नही दे पा रहा था। लेकिन रोमर ने अचानक पाया कि आयो जब तेजी से परिक्रमा करता है उस समय पृथ्वी बृहस्पति के समीप होती है, और जब वह धीमे परिक्रमा करता है तब पृथ्वी बृहस्पति से दूर होती है।
रोमर ने सोचा कि यह प्रकाश गति से संबधित होना चाहिये, लेकिन कैसे रोमर समझ नही पा रहे थे।
रोमर ने बाद मे सोचा कि यदि प्रकाश अनंत गति से यात्रा नही करता है और उसकी गति सीमीत है, इस स्थिति मे प्रकाश को बृहस्पति से पृथ्वी तक पहुचने मे कुछ समय लगता होगा। मान लेते है कि यह समय x मिनट है। जब आप बृहस्पति को किसी दूरबीन से देखते है तब हम उससे निकलने वाले प्रकाश को x मिनट बाद देख रहे होते है, अर्थात बृहस्पति और उसके चंद्रमाओं की x मिनट पुरानी छवि देख रहे होते है।
jupiterइसका अर्थ यह है कि जब बृहस्पति पृथ्वी से दूर होता है, तब उसके प्रकाश को पृथ्वी तक पहुंचने मे अधिक समय लगता है, और बृहस्पति के पृथ्वी के समीप होने पर यह समय कम होता है। इसका अर्थ यह है कि आयो की बृहस्पति की परिक्रमा का समय एक ही है, लेकिन बृहस्पति की पृथ्वी से दूरी जब कम होती है आयो पहले दिख जाता है, जबकि दूरी अधिक होने पर वह बाद मे दिखायी देता है।
रोमर ने प्रकाशगति की गणना बृहस्पति के चंद्रमा आयो के ग्रहण मे लगने वाले समय से की थी। इस चित्र मे S सूर्य है, E1 पृथ्वी है जब वह बृहस्पति J1 के समीप होती है। छह महिने पश्चात E2 स्थिति मे पृथ्वी सूर्य के दूसरी ओर है तथा बृहस्पति J2 पृथ्वी से अधिकतम दूरी पर है।  जब पृथ्वी E2 पर होती है बृहस्पति से उत्सर्जित प्रकाश को पृथ्वी की कक्षा के तुल्य दूरी अधिक तय करनी होती है। इस अधिक दूरी को तय करने मे लगने वाले समय तथा पृथ्वी की कक्षा के व्यास के आधार पर रोमर ने प्रकाश गति की गणना की थी।
रोमर ने प्रकाशगति की गणना बृहस्पति के चंद्रमा आयो के ग्रहण मे लगने वाले समय से की थी। इस चित्र मे S सूर्य है, E1 पृथ्वी है जब वह बृहस्पति J1 के समीप होती है। छह महिने पश्चात E2 स्थिति मे पृथ्वी सूर्य के दूसरी ओर है तथा बृहस्पति J2 पृथ्वी से अधिकतम दूरी पर है।
जब पृथ्वी E2 पर होती है बृहस्पति से उत्सर्जित प्रकाश को पृथ्वी की कक्षा के तुल्य दूरी अधिक तय करनी होती है। इस अधिक दूरी को तय करने मे लगने वाले समय तथा पृथ्वी की कक्षा के व्यास के आधार पर रोमर ने प्रकाश गति की गणना की थी।
रोमर ने पाया कि आयो के दिखायी देने के समय के अंतर तथा बृहस्पति और पृथ्वी के मध्य दूरीयों मे आने वाले अंतर से प्रकाशगति की गणना कर सकते है। रोमर ने गणना की और प्रकाशगति को 210,000 किमी/सेकंड पाया। वर्तमान विज्ञान के अनुसार प्रकाशगति लगभग 300,000 किमी/सेकंड है।
बाद के वर्षो मे बेहतर उपकरण और तकनीको के अविष्कार के फलस्वरूप प्रकाशगति मे मापन मे सटिकता आते गयी और प्रकाशगति का मापन सटिक होते गया। वर्तमान मे उपलब्ध तकनीक से हम अत्यंत परिशुद्ध मापन कर सकते है। उदाहरण के लिये अंतरिक्षयात्री चंद्रमा पर एक चट्टान पर एक दर्पण छोड़्कर आये है। हम उस दर्पण पर लेजर से निशाना लगा कर लेजर प्रकाश के चंद्रमा से आने जाने का समय ज्ञात कर सकते है जोकि 2.5 सेकंड है। इस विधि से भी प्रकाश की गति की गणना करने पर मूल्य 300,000 किमी/सेकंड प्राप्त होता है। चंद्रमा पर दर्पण रख कर प्रकाशगति ज्ञात करने का आईडीया भी गैलेलीयो का था।
सभी विद्युत-चुंबकीय विकिरण जैसे रेडीयो तरंग, माइक्रोवेव भी इसी गति से यात्रा करते है।

प्रकाशगति की गणना का इतिहास


वर्ष वैज्ञानिक विधि परिणाम(किमी/सेकंड) त्रुटि
1676 ओल रोमर (Olaus Roemer) बृहस्पति के उपग्रह 214,000
1726 जेम्स ब्रेडली (James Bradley) खगोलिय विक्षेप(Stellar Aberration) 301,000
1849 अर्मांड फ़िजेउ(Armand Fizeau) दांत वाले चक्र(Toothed Wheel) 315,000
1862 लीओन फ़ोकाट(Leon Foucault) घूर्णन करते दर्पण(Rotating Mirror) 298,000 +-500
1879 अलबर्ट माइकल्सन(Albert Michelson) घूर्णन करते दर्पण(Rotating Mirror) 299,910 +-50
1907 डोर्सी रोजा(Rosa, Dorsay) विद्युत चंबकिय स्थिरांक(Electromagnetic constants) 299,788 +-30
1926 अलबर्ट माइकल्सन(Albert Michelson) घूर्णन करते दर्पण(Rotating Mirror) 299,796 +-4
1947 एसेन, गार्डन-स्मिथ(Essen, Gorden-Smith) केविटि रेजोनेटर(Cavity Resonator) 299,792 +-3
1958 के डी फ़्रूमे(K. D. Froome) रेडीयो इन्टर्फ़ेरोमिटर(Radio Interferometer) 299,792.5 +-0.1
1973 एवानसन (Evanson et al) लेजर(Lasers) 299,792.4574 +-0.001
1983
वर्तमान मूल्य 299,792.458

गुरुत्वाकर्षण तरंग की खोज : LIGO की सफ़लता

लगभग सौ वर्ष पहले 1915 मे अलबर्ट आइंस्टाइन (Albert Einstein)ने साधारण सापेक्षतावाद का सिद्धांत(Theory of General Relativity) प्रस्तुत किया था। इस सिद्धांत के अनेक पुर्वानुमानो मे से अनुमान एक काल-अंतराल(space-time) को भी विकृत(मोड़) कर सकने वाली गुरुत्वाकर्षण तरंगो की उपस्थिति भी था। गुरुत्वाकर्षण तरंगो की उपस्थिति को प्रमाणित करने मे एक सदी लग गयी और 11 फ़रवरी 2016 को लीगो ऑब्ज़र्वेटरी के शोधकर्ताओं ने कहा है कि उन्होंने दो श्याम विवरों (Black Holes)की टक्कर से निकलने वाली गुरुत्वाकर्षण तरंगों का पता लगाया है।
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लिगो (LIGO / Laser Interferometer Gravitational-Wave Observatory) भौतिकी का एक विशाल प्रयोग है जिसका उद्देश्य गुरुत्वीय तरंगों का सीधे पता लगाना है। यह एमआईटी(MIT), काल्टेक(Caltech) तथा बहुत से अन्य संस्थानों का सम्मिलित परियोजना है। यह अमेरिका के नेशनल साइंस फाउण्डेशन (NSF) द्वारा प्रायोजित है।
गुरुत्वाकर्षण तरंगों की खोज के लिए भारतीय वैज्ञानिकों ने आंकड़ो के विश्लेषन(डेटा अनैलिसिस) समेत काफी अहम भूमिकाएं निभाई हैं। इंस्टिट्यूट ऑफ प्लाज्मा रिसर्च. गांधीनगर, इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रॉनामी ऐंड एस्ट्रोफिजिक्स, पुणे और राजारमन सेंटर फॉर अडवांस्ड टेक्नॉलाजी, इंदौर सहित कई संस्थान इससे जुड़े थे। गुरुत्वीय तरंगों की खोज का ऐलान आईयूसीएए पुणे और वाशिंगटन डीसी अमेरिका में वैज्ञानिकों ने किया। भारत उन देशों में से भी एक है, जहां गुरुत्वाकषर्ण प्रयोगशाला स्थापित की जा रही है।
गुरुत्वाकर्षण तरंगों की खोज के लिए भारतीय वैज्ञानिकों ने आंकड़ो के विश्लेषन(डेटा अनैलिसिस) समेत काफी अहम भूमिकाएं निभाई हैं। इंस्टिट्यूट ऑफ प्लाज्मा रिसर्च. गांधीनगर, इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रॉनामी ऐंड एस्ट्रोफिजिक्स, पुणे और राजारमन सेंटर फॉर अडवांस्ड टेक्नॉलाजी, इंदौर सहित कई संस्थान इससे जुड़े थे।
गुरुत्वीय तरंगों की खोज का ऐलान आईयूसीएए पुणे और वाशिंगटन डीसी अमेरिका में वैज्ञानिकों ने किया। भारत उन देशों में से भी एक है, जहां गुरुत्वाकषर्ण प्रयोगशाला स्थापित की जा रही है।
मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फ़ॉर ग्रेविटेशनल फ़िज़िक्स और लेबनीज़ यूनिवर्सिटी के प्रॉफ़ेसर कार्स्टन डान्ज़मैन ने इस शोध को डीएनए के ढांचे की समझ विकसित करने और हिग्स पार्टिकल की खोज जितना ही महत्वपूर्ण मानते है। वे कहते है कि इस खोज मे नोबेल पुरस्कार छिपा है। इस खोज के महत्व का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इन्हें शताब्दि की सबसे बड़ी खोज माना जा रहा है। दशकों से वैज्ञानिक इस बात का पता लगाने की कोशिश कर रहे थे कि क्या गुरुत्वाकर्षण तरंगें वाकई दिखती हैं। इसकी खोज करने के लिए यूरोपियन स्पेस एजेंसी(ESA) ने “लीज पाथफाइंडर” नाम का अंतरिक्ष यान भी अंतरिक्ष में भेजा था।
आज से करीब सवा अरब साल पहले ब्रह्मांड में 2 श्याम विवरों (ब्लैक होल) में टक्कर हुई थी और यह टक्कर इतनी भयंकर थी कि अंतरिक्ष में उनके आसपास मौजूद जगह(अंतरिक्ष) और समय, दोनों विकृत हो गए। आइंस्टाइन ने 100 साल पहले कहा था कि इस टक्कर के बाद अंतरिक्ष में हुआ बदलाव सिर्फ टकराव वाली जगह पर सीमित नहीं रहेगा। उन्होंने कहा था कि इस टकराव के बाद अंतरिक्ष में गुरुत्वाकर्षण तरंगें उत्पन्न हुईं और ये तरंगें किसी तालाब में पैदा हुई तरंगों की तरह आगे बढ़ती हैं।
अब विश्व भर के वैज्ञानिकों को आइंस्टाइन की सापेक्षता के सिद्धांत (थिअरी ऑफ रिलेटिविटी) के प्रमाण मिल गए हैं। इसे अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में बहुत बड़ी सफलता माना जा रहा है। गुरुत्वाकर्षण तरंगों की खोज से खगोल विज्ञान और भौतिक विज्ञान में खोज के नए दरवाजे खुलेंगे।
ध्यान रहे कि इसके पहले युग्म श्याम विवरों(Binary Black Holes) की उपस्थिति के प्रमाण थे, लेकिन इस खोज से उनकी उपस्थिति पुख्ता रूप से प्रमाणित हो गयी है और यह भी प्रमाणित हो गया है कि अतंत: वे टकराकर एक दूसरे मे विलिन हो जाते है।
इन दोनो श्याम विवरो का विलय से पहले द्रव्यमान 36 तथा 29 सौर द्रव्यमान के बराबर था। उनके विलय के पश्चात बने श्याम विवर का द्रव्यमान 62 सौर द्रव्यमान है। आप ध्यान दे तो पता चलेगा कि नये श्याम विवर का द्रव्यमान दोनो श्याम विवर के द्रव्यमान से कम है और 3 सौर द्रव्यमान के तुल्य द्रव्यमान कम है। ये द्रव्यमान गायब नही हुआ है, यह द्रव्यमान ऊर्जा के रूप मे परिवर्तित हो गया है और इसी ऊर्जा से गुरुत्वाकर्षण तरंगे उत्पन्न हुयी है। इस ऊर्जा की मात्रा अत्याधिक अधिक है, इतनी अधिक की सूर्य को इतनी ऊर्जा उत्सर्जित करने मे 150 खरब वर्ष लगेंगे। (नोट : 1 सौर द्रव्यमान – सूर्य का द्रव्यमान)।
 दो LIGO प्रयोगशाला द्वारा प्राप्त वास्तविक आंकड़े। आलेख मे आया विचलन गुरुत्वाकर्षण तरंगो द्वारा अंतरिक्ष मे मोड़ उत्पन्न करने से है जोकि दो श्याम विवर के विलय से उत्पन्न हुयी थी।

दो LIGO प्रयोगशाला द्वारा प्राप्त वास्तविक आंकड़े। आलेख मे आया विचलन गुरुत्वाकर्षण तरंगो द्वारा अंतरिक्ष मे मोड़ उत्पन्न करने से है जोकि दो श्याम विवर के विलय से उत्पन्न हुयी थी।

गुरुत्वाकर्षण तरंगे क्या है?

द्रव्यमान द्वारा काल-अंतराल(spacetime) मे उत्पन्न विकृति
द्रव्यमान द्वारा काल-अंतराल(spacetime) मे उत्पन्न विकृति
आइंस्टाइन के साधारण सापेक्षतावाद सिद्धांत के अनुसार अंतरिक्ष और समय दोनो एक ही सिक्के के दो पहलु है, दोनो एक दूसरे से गुंथे हुये है, जिन्हे हम एक साथ ’काल-अंतराल(spcaetime)’ कहते है। इसे समझने के लिये कई उदाहरण है लेकिन सबसे सरल एक चादर है जिसके चार आयाम है जोकि अंतरिक्ष के तीन आयाम(लंबाई, चौड़ाई और गहराई) तथा चौथा आयाम के रूप मे समय है। ध्यान दें कि यह केवल समझने के लिये है, वास्तविकता इससे थोड़ी भिन्न होती है।
हम सामान्यत: गुरुत्वाकर्षण बल को एक आकर्षित करनेवाला या खिंचने वाला बल मानते है। लेकिन आइंस्टाइन के अनुसार गुरुत्वाकर्षण काल-अंतराल को मोड़ देता है, उसे विकृत कर देता है और इस प्रभाव को हम एक आकर्षण बल के रूप मे देखते है। एक अत्याधिक द्रव्यमान वाला पिंड काल-अंतराल को इस तरह से मोड़ देता है कि  इस मुड़े हुये काल अंतराल से गुजरते हुये अन्य पिंड की गति त्वरित हो जाती है। जैसे किसी तनी हुयी चादर के मध्य एक भारी गेंद रख देने पर वह चादर मे एक झोल उत्पन्न कर देती है, उसके पश्चात उसी चादर पर कुछ कंचे डालने पर वे इस झोल की वजह से गति प्राप्त करते है।
सरल शब्दो मे पदार्थ अंतरिक्ष को मोड़ उत्पन्न करने के लिये निर्देश देता है और अंतरिक्ष पदार्थ को गति करने निर्देश देता है।
साधारण सापेक्षतावाद के सिद्धांत के गणित के अनुसार यदि किसी भारी पिंड की गति मे त्वरण आता है, तो वह अंतरिक्ष मे हिचकोले, लहरे उत्पन्न करेगा जो उस पिंड से दूर गति करेंगी। ये लहरे काल-अंतराल मे उत्पन्न तरंग होती है, इन तरंगो की गति के साथ काल-अंतराल(spacetime) मे संकुचन और विस्तार उत्पन्न होता है। इस घटना को समझने के लिये आप किसी शांत जल मे पत्थर डालने से जल की शांत सतह को मोड़ रही लहरो के जैसे मान सकते है।
गुरुत्वाकर्षण तरंगो को उत्पन्न करने के कई तरिके है। जितना अधिक भारी और घना पिंड होगा वह उतनी अधिक ऊर्जावान तरंग उत्पन्न करेगा। पृथ्वी सूर्य के गुरुत्वाकर्षण से त्वरित होकर एक वर्ष मे सूर्य की परिक्रमा करती है। लेकिन यह गति बहुत धीमी है तथा पृथ्वी का द्रव्यमान इतना कम है कि इससे उत्पन्न गुरुत्वाकर्षण तरंग को पकड़ पाना लगभग असंभव ही है।
लेकिन यदि आपके पास दो अत्याधिक द्रव्यमान वाले पिंड है, उदाहरण के लिये न्युट्रान तारे जोकि महाकाय तारो के अत्याधिक घनत्व वाले अवशेष केंद्रक होते है, अपनी गति से ऐसी गुरुत्वाकर्षण तरंग उत्पन्न कर सकते है जिन्हे हम पकड़ सकें।
1974 मे खगोल वैज्ञानिक जोसेफ़ टेलर(Josheph Taylor) तथा रसेल ह्ल्स(Russel Hulse) ने एक ’युग्म न्युट्रान तारों(Binary Neutron Star)’ को खोजा था। ये दोनो अत्याधिक द्रव्यमान वाले घने तारे एक दूसरे की परिक्रमा अत्याधिक तीव्र गति से लगभग 8 घंटो मे करते थे। इस तीव्र गति से परिक्रमा करने पर वे थोड़ी मात्रा मे गुरुत्वाकर्षण तरंग के रूप मे ऊर्जा उत्पन्न करते थे। यह ऊर्जा उन तारो की परिक्रमा गति से ही उत्पन्न हो रही थी, जिससे गुरुत्वाकर्षण की ऊर्जा के ह्रास से उन तारो की परिक्रमा की गति भी कम हो रही थी। इससे उन तारो की कक्षा की दूरी भी कम हो रही थी और उनकी परिक्रमा का समय भी कम हो रहा था। समय के साथ उनकी कक्षा की दूरी मे आने वाली कमी की गणना की गयी और यह कमी साधारण सापेक्षतवाद के सिद्धांत से गणना की गयी कमी से सटिक रूप से मेल खाती थी।
टेलर और हल्स द्वारा निरीक्षित दो न्युट्रान तारो की कक्षा मे ह्रास का आलेख(लाल बिंदु)। नीले बिंदु साधारण सापेक्षतावाद द्वारा गणना किये गये है जोकि निरीक्षित प्रभाव से मेल खाते है।
टेलर और हल्स द्वारा निरीक्षित दो न्युट्रान तारो की कक्षा मे ह्रास का आलेख(लाल बिंदु)। नीले बिंदु साधारण सापेक्षतावाद द्वारा गणना किये गये है जोकि निरीक्षित प्रभाव से मेल खाते है।
टेलर और हल्स को इस खोज के लिये नोबेल पुरस्कार दिया गया था और उन्होने अप्रत्यक्ष रूप से गुरुत्वाकर्षण तरंग खोज निकाली थी। उन्होने गुरुत्वाकर्षण तरंगो के निर्माण से ऊर्जा के ह्रास को तारो की कक्षा मे आनेवाले परिवर्तन को देखा था, लेकिन उन्होने गुरुत्वाकर्षण तरंगो को प्रत्यक्ष नही देखा था।

लिगो (LIGO) ने गुरुत्वाकर्षण तरंगो को कैसे खोजा?

गुरुत्वाकर्षण तरंग बहुत से आकार और प्रकार मे आती है। लेकिन वे सभी की सभी अंतरिक्ष के आकार को न्युनाधिक मात्रा मे विकृत करती है। इसके कारण दो पिंडो के मध्य अंतरिक्ष मे आयी विकृति से दूरी कम ज्यादा होती है। इस दूरी के परिवर्तन को मापा कैसे जाये ? यह दो पिंडो के मध्य किसी पैमाने से उनकी दूरी मे आने वाले परिवर्तनो को मापने जैसा आसान नही है।
1. गुरुत्वाकर्षण तरंग से अंतरिक्ष मे संकुचन 10^22 भाग में एक भाग के बराबर है! यानी परमाणु के नाभिक का एक करोड़वां भाग। 2. प्रयोग से प्राप्त आंकड़ो में बहुत ही ज्यादा
1. गुरुत्वाकर्षण तरंग से अंतरिक्ष मे संकुचन 10^22 भाग में एक भाग के बराबर है! यानी परमाणु के नाभिक का एक करोड़वां भाग।
2. प्रयोग से प्राप्त आंकड़ो में बहुत ही ज्यादा “अवांछित संकेत” भी होते है, जो किसी ट्रेन के चलने, हवाई जहाज के चलने, ट्रैफिक, चलने और यहाँ तक परमाणुओं के कम्पन से भी उत्पन्न होते है। इन “अवांछित संकेतो” के मध्य में ही गुरुत्वाकर्षण तरंग के संकेत भी होते है, जिसकी तीव्रता अत्यंत कम होती है, जिसे बाकी अवांछित संकेत से अलग करना बहुत बड़ी चुनौती का काम होता है। पांच महीने इसी काम में लग गए हैं।
3. चार किलोमीटर लम्बी सुरंग के अंदर एक सीधा पाइप है, पाइप के अंदर निर्वात है, लेज़र निर्वात से गुजरता है! ताकि लेजर किसी परमाणु से टकराकर कोई “अवांछित संकेत” न उत्पन्न कर सके।
लिगो (LIGO / Laser Interferometer Gravitational-Wave Observatory) के अंतर्गत दो प्रयोगशालायें है एक वाशींगटन राज्य मे है, दूसरी लुसियाना राज्य मे है जिन्हे संयुक्त रूप से काल्टेक तथा एम आई टी संचालित करती है। ये किसी अन्य खगोलिय वेधशाला के जैसे नही है। इन दोनो वेधशालाओ मे बहुत लंबी L के आकार मे सुरंगे है। एक चार किमी लंबी सुरंग के सबसे दूर वाले सीरो पर दर्पण लगे है।
जिस जगह पर ये दोनो सुरंगे जुड़ी हुयी है उसके उपर एक शक्तिशाली लेजर उपकरण लगा हुआ है। यह लेजर उपकरण लेजर किरण को एक विशेष दर्पण पर डालता है और यह दर्पण इस लेजर किरण को विभाजित कर सूरंग के दोनो ओर भेजता है। सूरंग के दोनो सीरो के दर्पण से परावर्तित किरणो का अंत मे एक जांच उपकरण वापिस जोड़कर मापता है।
इस विशालकाय प्रयोग को सरल रूप से समझते है। इस प्रयोग की दो सुरंगो के दो सीरो पर चित्र मे दिखाये अनुसार दो दर्पण M1 तथा M2 लगे है। इन दो सूरंगो के जोड़ पर लेजर विभाजक B, लेजर उपकरण(स्रोत) LS तथा लेजर जांचक LD लगा है। लेजर स्रोत LS से लेजर किरण लेजर विभाजक B पर पड़ती है और वह उसे विभाजित कर दर्पण M1 तथा M2 पर भेजती है। M1 तथा M2 से परावर्तित किरणे B से गुजरते हुये लेजर जांचक उपकरण LD पर आती है। ध्यान दे कि B से M1 या M2 की दूरी 4 किमी है।
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इस जांच प्रणाली को मिशेल्सन इन्टर्फ़ेरोमिटर(Michelson Interferometer) कहते है।
इस प्रणाली को इस आसान चित्र मे देखे।
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साधारण स्थिति मे(गुरुत्वाकर्षण तरंगो की अनुपस्थिति मे) लेजर स्रोत LS से उत्सर्जित लेजर किरण विभाजित B द्वारा विभाजित हो कर M1/M2 तक इस चित्र के अनुसार जायेंगी और परावर्तित होकर लेजर जांचक LD तक पहुंचेंगी। हरा और लाल रंग समझने के लिये प्रयोग किया गया है, साथ ही लेजर पल्स का परावर्तित होकर आने वाला मार्ग केवल समझने के लिये हटकर दिखाया है।
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प्रकाश स्रोत बांये LS से उत्सर्जित होता है, तथा विभाजक तक पहुंचने से पहले साथ साथ चलता है, लाल तथा हरें बिंदु साथ मे है। विभाजक हरे रंग की किरण को उपर की ओर वाले दर्पण M1 तथा लाल रंग की किरण को दायीं ओर के दर्पण M2 की ओर भेजता है। दोनो किरणे M1/M2 से परावर्तित होकर विभाजक से होते हुये लेजर जांच उपकरण नीचे LD तक आती है।
इस प्रणाली मे आड़ी सुरंग सीधी खड़ी सूरंग से थोड़ी बड़ी है। इसलिये लाल किरण को थोड़ा अधिक समय लगता है इस्लिये वे जांच यंत्र तक थोड़ी देर मे आती है, और इससे हमे एक लय मे किरणे आती दिखायी देती है, लाल , हरी लाल , हरी और उनके मध्य समय अंतराल भी समान है। यह महत्वपूर्ण है जो हम आगे देखेंगे।
नीचे चित्र मे इन किरणो के आने का पैटर्न और समय देखे। पैटर्न स्पष्ट है, लाल और हरी किरण एक के बाद एक समान अंतराल मे आ रही है।
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अब गुरुत्विय तरंग को लेकर आते है।

यदि गुरुत्वाकर्षण तरंग आपकी स्क्रीन के पीछे से आपकी स्क्रिन के सामने की ओर जा रही है तो उसका प्रभाव नीचे चित्र के जैसे होगा।(प्रभाव को समझने के लिये बढ़ा चढ़ा कर दिखाया गया है।) गुरुत्वाकर्षण तरंग से अंतरिक्ष को मोड़ दिया गया है जिससे विभाजक और दर्पण M1/M2 के मध्य दूरी मे परिवर्तन हुआ है। अब हमारे जांच यंत्र मे आ रहे प्रकाश को देखिये। कभी कभी लाल और हरी किरण समान अंतराल मे आ रही है, कभी वे कम अंतराल मे आ रही है। यह प्रभाव गुरुत्वाकर्षण तरंग से आया है, गुरुत्वाकर्षण तरंग की अनुपस्थिति मे समय अंतराल नियमित था।
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इस प्रभाव को नीचे चित्र मे देखें, इस चित्र मे आप इन किरणो के समय अंतराल मे अनियमितता को देख सकते है। यह प्रभाव केवल गुरुत्वाकर्षण तरंग से संभव है। केवल गुरुत्वाकर्षण तरंग ही दो स्थानो के मध्य दूरी को संकुचित या विस्तार दे सकती है, यदि हमने यह प्रभाव देखा है अर्थात हमने गुरुत्वाकर्षण तरंग देख ली है।
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लिगो ने यह प्रभाव 14 सितंबर को देखा था।

इन्टरफ़्रेन्स जांच का संचालन

यदि आप सोच रहे है कि LIGO जैसे उपकरण को इन्टरफ़ेरोमेट्रिक गुरुत्वाकर्षण तरंग जांच उपकरण(interferometric gravitational wave detector) क्यों कहा जाता है, तो हमे तरंगो से संबधित कुछ मूल बाते समझनी होंगी। यदि आप जटिलता मे नही जाना चाहते तो बस इतना समझ लें कि LIGO जैसे उपकरण प्रकाश तरंग के गुणधर्मो मे आये परिवर्तनो से पिछले एनीमेशन वाले चित्र मे लेजर किरणो के आने के अंतराल को मापते है। यदि आप इस जटिलता मे नही जाना चाहते तो इस भाग को छोड़ कर अगले भाग से पढना जारी रखे।
प्रकाश एक तरंग होती है जिसमे चढ़ाव और उतार दोनो होते है जोकि विद्युत-चुंबकिय प्रभाव के अधिकतम और न्यूनतम से संबधित होते है। पिछले एनीमेशन मे हमने प्रकाश किरणो के प्रवाह के रूप मे देखा है लेकिन इसे किसी इन्टरफ़्रेमोमीटर मे प्रकाश तरंग पर पढ़ने वाले प्रभाव को समझने के लिये भी प्रयोग किया जा सकता है। इस एनिमेशन मे आप हर लाल और हरे बिंदु को प्रकाश तरंग के शिर्ष बिंदु के जैसे मान सकते है।
2 और 2 कण मिलकर चार कण बनते है। लेकिन दो भिन्न तरंगो को जोड़ने पर कुछ भी हो सकता है, कभी वे मिलकर एक बड़ी तरंग बनायेंगी, कभी छोटी तरंग और कभी दोनो एक दूसरे को नष्ट कर कुछ भी नही बनायेंगी। और कभी इससे जटिल परिणाम भी आ सकता है।
जब दो तरंग एक जैसे हो, अर्थात एक तरंग का शिर्ष दूसरी तरंग के शिर्ष के साथ हो तथा दोनो तरंग के निम्न बिंदु भी एक साथ हो तब दोनो मिलकर एक बड़ी तरंग बनाते है। नीचे का चित्र मे दिखाया गया है कि दो तरंगो के भिन्न हिस्से जब किसी प्रकाश जांचक यंत्र मे आते है तो मिलकर कैसे नयी तरंग बनाते है।(समझने के लिये हर तरंग के शिर्ष पर एक बिंदु बना दिया है।)

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उपरोक्त चित्र मे हरी तरंग लाल तरंग के साथ मे है। दोनो के शिर्ष तथा ढाल एक साथ है। जब ये दोनो मिलती है तो एक बड़ी तरंग बनाती है जिसे चित्र के नीचले भाग मे नीली तरंग के रूप मे दर्शाया है।
अब यदि किसी एक तरंग का शिर्ष यदी दूसरी तरंग के निम्न के साथ हो तो क्या होगा ? इस स्थिति मे दोनो एक दूसरे को नष्ट कर देंगी और परिणाम मे कुछ नही मिलेगा। नीचे वाला चित्र देखिये।
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ध्यान दे कि गुरुत्वाकर्षण तरंगो की अनुपस्थिति मे यही हो रहा है। लाल और हरी किरण के मध्य अंतराल समान है, एक तरंग का शिर्ष दूसरी तरंग के निम्न के साथ है। इसका परिणाम यह होता है कि प्रकाश जांच यंत्र तक कोई प्रकाश किरण नही पहुंचती है।(यह एक आदर्श स्थिति है।)
जब कोई गुरुत्वाकर्षण तरंग LIGO से प्रवाहित होती है तब स्थिति मे परिवर्तन आता है। इस स्थिति मे दोनो तरंग के शिर्ष के आने के समय अंतराल का पैटर्न बदल जाता है।
इस स्थिति मे नीली रेखा जो कि लाल और हरी तरंग का समुच्च्य है, थोड़ी जटिल होती है। यह एक सीधी रेखा नही होती है। प्रकाश जांच यंत्र तक पहले प्रकाश नही पहुंच रहा था, अब जांच यंत्र तक प्रकाश पहुंच रहा है और इसके पीछे कारण गुरुत्वाकर्षण तरंग है।
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हमने इस लेख मे LIGO जैसे गुरुत्वाकर्षण तरंग जांच यंत्र प्रणाली को बहुत ही सरल रूप मे देखा है, वास्तविकता मे इसमे थोड़ी जटिलताये होती है। यह उपकरण बहुत से अन्य अनवांछित कारको से भी प्रभावित हो सकता है जिसमे उदाहरण के लिये किसी ट्रेन के गुजरने से उत्पन्न कंपन भी हो सकते है। LIGO जैसे उपकरण मे इस तरह के अवांछित कारको से उत्पन्न संकेतो को दबाना भी शामिल है।
LIGO जैसे प्रयोग किसी एक ही संस्था द्वारा संचालित नही किये जा सकते है। इस तरह के प्रयोगो के लिये अंतराष्ट्रीय स्तर के प्रयास होते है और कई देशो की संस्थाये सहयोग करती है।

वास्तविकता मे 14 सितंबर 2015 को क्या हुआ ?

कल्पना किजिये की दो श्याम विवर (black hole)काफ़ी समीप से एक दूसरे की परिक्रमा कर रहे है। दोनो का द्रव्यमान अत्याधिक है और वे एक दूसरे की परिक्रमा अत्याधिक गति (प्रकाश गति के बड़े भाग से) कर रहे है। इस परिक्रमा मे वे गुरुत्वाकर्षण तरंग उत्पन्न करेंगे, जोकि अंतरिक्ष मे लहर उत्पन्न करेंगी और प्रकाशगति से यात्रा करेंगी। यह संभव है कि इन लहरो को LIGO पकड़ पाये।
जैसे ही श्याम विअवर एक दूसरी की परिक्रमा करते हुये गुरुत्वाकर्षण तरंग उत्पन्न करते है उनकी कक्षिय गति मे ह्रास होता है। टेलर और हल्स के न्युट्रान तारो के जैसे इनकी कक्षा छोटी होते जाती है और वे एक दूसरे की परिक्रमा अधिक तीव्र गति से करते है।
उनकी कक्षा की गति मे परिवर्तन उनके द्वारा उत्पन्न तरंगो को प्रभावित करता है। तरंगो की आवृत्ती(तरंग की प्रति सेकंड संख्या) उन दो पिंडो की परिक्रमा गति पर निर्भर करती है। जैसे ही श्याम विवर की कक्षा छोटी होती है, उनकी परिक्रमा गति मे वृद्धि होती है और गुरुत्वाकर्षण तरंगो की आवृत्ती बढ़ते जाती है। श्याम विवर और तेज गति से परिक्रमा कर रहे है, वे और अधिक तरंग उत्पन्न करेंगे, इससे उनकी ऊर्जा मे ह्रास और तेजी से होगा जिससे वे अधिक तरंग उत्पन्न करेंगे।
ये एक घातांकी वृद्धि है। इस प्रभाव से श्याम विवर एक दूसरे के समीप और समीप आते जायेंगे, त्वरित होती गति से एक दूसरे की परिक्रमा करेंगे, और अधिक आवृत्ति वाली अधिक शक्तिशाली गुरुत्वाकर्षण तरंग उत्पन्न करेंगे। अंतत: वे एक दूसरे से टकराकर एक दूसरे मे विलिन हो जायेंगे और एक विशाल श्याम विवर का र्निमाण करेंगे।
जब ऐसी घटना होती है तब उसे LIGO गुरुत्वाकर्षण तरंग के हस्ताक्षर के रूप मे देखता है जिसकी आवृत्ति बढ़ते जाती है।
जैसे ही श्याम विवर एक दूसरे मे विलय होने के समीप होते है उनकी गुरुत्वाकर्षण तरंग की आवृत्ति अत्याधिक हो जाती है, उसे पकड़ना आसान होता है। 14 सितंबर 2015 को यही घटना घटी थी जिसे वाशींगटन राज्य के LIGO जे पकड़ा था और लुसियाना राज्य के LIGO ने सात मिलिसेकंड बाद पकड़ा था। दोनो के समय मे यह अंतर भी इन गुरुर्त्वाकर्षण तरंगो के प्रकाशगति से यात्रा करने के कारण आया था।
श्याम विवर का विलय एक प्रलंयकारी अद्भूत घटना है और 14 सितंबर से पहले हम इसे नही जानते थे।
LIGO ने हमारी आंखे खोल दी है।

Wednesday 2 March 2016

आत्म चेतन मशीन – संभावना, तकनीक और खतरे(Self-aware machine : Possibilities, Technology and associated dangers)

मशीनी मानव। एक ऐसी मानव कल्पना जिसमे मशीनें मानव को विस्थापित कर उसके अधिकतर कार्य करेंगी। मानवों का विस्थापन दोहरा अर्थ रखता है, यदि उसके द्वारा किये गये श्रम का विस्थापन हो तो वह मानव जाति के उत्थान मे सहायक हो सकता है। लेकिन यदि मशीनें मानव जाति को ही विस्थापित करने लग जाये तब यह स्थिति एक दू:स्वप्न को जन्म देती है।
क्या मशीनी मानव संभव है ? क्या मशीने मानव को विस्थापित कर सकती है? क्या मशीने मानव मस्तिष्क के तुल्य हो सकती है? क्या उनमें मानवों जैसी भावनायें आ सकती है? क्या कृत्रिम बुद्धी का निर्माण संभव है ? ढेर सारे प्रश्न है, ढेर सारी संभावनाएं !

टर्मीनेटर 2 : जजमेंट डे

“लास एन्जेल्स, वर्ष 2029. सभी स्टील्थ बमवर्षक विमानो मे नये तंत्रिकीय संसाधक(neural processors) लगा दिये गये है और वे पूर्णतः मानव रहित बन गये है। उनमे से एक स्कायनेट ने ज्यामितीय दर से सीखना प्रारंभ किया है। वह 2:14 बजे सुबह पूर्वी अमरीकी समय अगस्त 29 को आत्म चेतन हो गया।
“Los Angeles, year 2029. All stealth bombers are upgraded with neural processors, becoming fully unmanned. One of them, Skynet, begins to learn at a geometric rate. It becomes self-aware at 2:14 a.m. eastern time, August 29.”
यह जेम्स कैमरान द्वारा निर्देशित फ़िल्म “टर्मीनेटर 2- जजमेंट डे” मे दर्शाया गया भविष्य है। स्कायनेट का आत्म-चेतन होना और उसका मानवता पर आक्रमण मानव और रोबोट के मध्य एक युद्ध का आरंभ करता है और यही युद्ध टर्मीनेटर फिल्म श्रृंखला की हर फिल्म का पहला दृश्य होता है।
2000 ए स्पेस ओडीसी का Hal 9000
2000 ए स्पेस ओडीसी का Hal 9000
1950 के दशक के प्रारंभ से ही विज्ञान फतांसी फिल्मो मे रोबोट को मानव निर्मित एक ऐसी परिष्कृत मशीन के रूप मे दर्शाया जाता रहा है  जो वह ऐसे जटिल कार्य आसानी से कर सकती है जो मानव के लिये करना कठिन है। उदाहरण स्वरूप गहरी खतरनाक खानो मे खुदायी करना, सागर की तलहटी मे कार्य करना इत्यादि। इन  फिल्मो मे अक्सर रोबोट को आकाशगंगाओं के मध्य यात्रा करने वाले अंतरिक्षयानो के चालक और नियंत्रक के रूप मे दर्शाया जाता रहा है। दूसरी ओर इन रोबोटो को एक ऐसे खलनायक के रूप मे भी दर्शाया गया है जो भस्मासूर की तरह अपने निर्माता मानव को ही नष्ट कर देना चाहते है। इसके सबसे बडा उदाहरण आर्थर क्लार्के और स्टेनली कुब्रिक की फिल्म “2001 ए स्पेस ओडीसी” का कंप्यूटर “HAL 9000” है।
इस फिल्म मे HAL सारे अंतरिक्ष यान के परिचालन के अतिरिक्त , अंतरिक्षयात्रीयों से प्यार से बातें करता है, शतरंज खेलता है, चित्रो की सुंदरता का विश्लेष्ण करता है, यानकर्मीयों की भावनाओं को समझ लेता है लेकिन वह अभियान के पूर्व निर्धारित मूल उद्देश्य की पूर्ति के लिये वह पांच अंतरिक्षयात्रीयों मे से चार की हत्या भी कर देता है। अन्य विज्ञान फंतासी फिल्म जैसे “मैट्रिक्स” और “टर्मीनेटर” मे इससे भी भयावह चित्र का चित्रण किया गया है जिसमे रोबोट बुद्धिमान और आत्म जागृत हो कर मानव जाति को अपना ग़ुलाम बना लेते है।
बहुत कम ही फिल्मो मे रोबोट को एक विश्वसनिय सहयोगी के रूप मे दर्शाया गया है जो मानव के साथ सहयोग करते है और उनके खिलाफ षडयंत्र नही रचते है। राबर्ट वाईज की 1951 मे आई फिल्म “द डे द अर्थ स्टूड स्टिल” मे गार्ट पहला रोबोट(परग्रही रोबोट) है जो कैप्टन कलातु को मानवता को एक संदेश देने मे सहायता करता है। यह फिल्म दोबारा बनी जिसमे कैप्टन कलातु का पात्र किनु रीव्ज(मैट्रीक्स श्रृंखला के नियो) ने निभाया था।
जेम्स कैमरान द्वारा निर्देशीत एलीयंस 2 मे ’बिशप” एन्ड्राईड(एन्ड्राईड- मानव सदृश्य रोबोट)  का कार्य यात्रा के दौरान अंतरिक्षयान का परिचालन और यात्रीयों की सुरक्षा है। HAL और एलीयन 1 के रोबोट के विपरित बिशप पूरे अभियान के दौरान किसी त्रुटि का शिकार नही होता है और अपने कार्य के लिये ईमानदार रहता है। इस फिल्म के अंतिम दृश्यो मे बिशप को एलीयन दो टुकड़ो मे तोड देता है लेकिन वह एलन रीप्ले को बचाने ले लिये अपना हाथ देता है। जेम्स कैमरान की फिल्मो मे पहली बार किसी रोबोट पर विश्वास किया गया था और उसे एक नायक के रूप मे दर्शाया गया था।
रोबोकाप
रोबोकाप
1987 मे आयी रोबोकाप मे एक रोबोट कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये मानवता की मदद करता है लेकिन वह पूर्णतः यांत्रिक नही है, वह सायबोर्ग है जोकि यंत्र और जैविक प्रणाली का मिश्रण है; आधा मानव, आधा मशीन।
इन सभी फिल्मो मे मानव मन मे तकनीक पर चल रहे अंतर्द्वद्व  को सफलतापूर्वक दर्शाया गया है, एक ओर इन फिल्मो मे मानव की तकनीक से चाहत दर्शायी गयी है; दूसरी ओर मानव मन मे अपनी ही द्वारा निर्मित तकनीक से भय दर्शाया गया है। एक ओर मानव रोबोट को अपनी एक ऐसी चाहत के रूप मे देखता है जो उसे अमरता प्रदाण कर सकती है और एक ऐसे मजबूत और अविनाशी कलेवर मे है जिसकी बुद्धिमत्ता, तंत्रिकातंत्र और क्षमता किसी मानव से कई गुणा बेहतर है। दूसरी ओर उसके मन मे डर समाया हुआ है कि अत्याधुनिक तकनीक जो आम लोगो के लिये रहस्यमयी है ,उसके नियंत्रण से बाहर जा सकती है और अपने ही निर्माता के विरोध मे कार्य कर सकती है, और यही डर HAL 9000, टर्मीनेटर और मैट्रिक्स मे दिखाया गया है। आइजैक आसीमोव द्वारा उनके रोबोटो मे प्रयुक्त पाजीट्रानीक मस्तिष्क मे भी यही भय अंतर्निहीत है, वह ऐसी आधुनिक तकनीक से निर्मित है जिसकी सूक्ष्म स्तर पर कार्यप्रणाली को वर्तमान मे कोई नही जानता है और इन रोबोटो का निर्माण कार्य पूर्णतः स्वचालित है।
कंप्यूटर विज्ञान मे हालिया प्रगति ने नये विज्ञान फतांशी रोबोटो के गुणों को भी प्रभावित किया है।  कृत्रिम न्युरल नेटवर्क ने टर्मीनेटर रोबोट पर प्रभाव डाला है, वह बुद्धिमान है तो है ही, साथ ही मे वह अनुभव से सीख भी सकता है।
इस फिल्म मे टर्मीनेटर रोबोट काल्पनिक रोबोट की प्राथमिक अवस्था वाला प्रतिरूप है। वह चल सकता है, बोल सकता है, मानव के जैसे देख और व्यवहार कर सकता है। उसकी बैटरी 120 वर्ष तक ऊर्जा दे सकती है साथ मे ही किसी अप्रत्याशित दुर्घटना की अवस्था मे उसके पास पर्यायी ऊर्जा व्यवस्था है। लेकिन इस सबसे  महत्वपूर्ण है कि वह सीख सकता है। उसे नियंत्रण करने के लिये न्युरल-नेट प्रोसेसर है, जो अपने अनुभव से सीखने वाले कंप्यूटर है।
इस फिल्म मे दार्शनिक कोण से सबसे रोचक बात यह है कि यह एक ऐसा न्युरल प्रोसेसर है कि वह घातांकी दर(exponential rate) से सीखता है और कुछ समय पश्चात आत्म-जागृत हो जाता है। इस तरह से यह फिल्म महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती है जो कृत्रिम चेतना से संबधित है। क्या रोबोट मे कृत्रिम चेतना आ सकती है, क्या वे आत्म जागृत हो सकते है ? यदि हाँ तो इसके क्या परिणाम होंगे ? इस कृत्रिम चेतना, आत्म जागृति के दुष्परिणामो से कैसे बचा जाये ?

क्या एक मशीन आत्म जागृत हो सकती है?

एलन ट्युरींग
एलन ट्युरींग
इस प्रश्न पर विचार करने से पहले हमे एक और प्रश्न का उत्तर देना होगा “हम कैसे माने कि कोई बुद्धिमान वस्तु आत्म-चेतन है?” 1950 मे एलन ट्युरींग के सामने यही समस्या थी लेकिन वह कृत्रिम बुद्धिमत्ता से संबधित थी। एलन ट्युरींग के सामने प्रश्न था कि हम किसी मशीन को मानव के जैसे बुद्धिमान कैसे माने। उन्होने इसके लिये एक प्रसिद्ध जांच प्रक्रिया बनायी जिसे ट्युरींग टेस्ट कहते है। इसके अनुसार दो कुंजीपटल है, एक कंप्यूटर से जुडा है, दूसरा एक व्यक्ति के पास है। एक जांचकर्ता अपने पसंदिदा किसी भी विषय पर कुछ प्रश्न टाईप करता है , दोनो कंप्यूटर और व्यक्ति उन प्रश्नों का उत्तर टाईप करते है और जांचकर्ता उन उत्तरो को एक स्क्रीन पर देखता है। यदि जांचकर्ता उन उत्तरो को देखकर यह तय नही कर पाये कि कौनसा उत्तर मानव ने दिया है और कौनसा उत्तर कंप्यूटर ने  तब हम कह सकते है कि मशीन ने ट्युरींग टेस्ट पास कर ली है। अब तक किसी मशीन ने ट्युरींग टेस्ट पास नही की है।( इसके अपवाद कुछ विशेष विषय जैसे शतंरज जैसे खेल है जिसमे कंप्यूटर मानव पर भारी पढ़ा है।)
मई 11, 1997 को इतिहास मे प्रथम बार डीप ब्ल्यु नामक कंप्यूटर ने विश्व शतरंज चैंपीयन गैरी कास्पोरोव को 3.5 – 2.5 के स्कोर से हराया था। लेकिन ध्यान रखें कि डीप ब्ल्यु को शतरंज की समझ नही है, वह केवल कुछ नियमों का पालन कर पता करता है कि किस चाल को चलने से वह बेहतर स्थिति मे होगा और यह नियम कुछ मानव शतरंज खिलाडीयो द्वारा डीप ब्ल्यु की स्मृति मे डाले गये है। यदि हम ट्युरींग के दृष्टिकोण से देखें तो कह सकते है कि डीप ब्ल्यु शतरंज बुद्धिमान तरीके से खेलता है लेकिन हम यह भी कह सकते हैं कि वह नही जानता कि उसकी चालों का अर्थ क्या है, यह ठीक उसी तरह से है जैसे टीवी को उस पर दिखायी जा रही तस्वीरों का अर्थ नही मालूम होता है।
किसी बुद्धिमान वस्तु के आत्म-चेतन होने की जांच तो और भी बडी़ समस्या है। तथ्य यह है कि बुद्धिमत्ता बाह्य व्यवहार से प्रदर्शित होती है और यह एक ऐसा गुणधर्म है जिसी भिन्न जांच मानको से मापा जा सकता है, लेकिन आत्म-चेतन हमारे मस्तिष्क का आंतरिक व्यवहार है जिसे मापा नही जा सकता है।
शुध्द दार्शनिक दृष्टिकोण से किसी अन्य मस्तिष्क मे चेतना की उपस्थिति नही मापी जा सकती है, यह एक ऐसा गुणधर्म है को उसका धारक ही माप सकता है। हम किसी अन्य मे मस्तिष्क मे प्रवेश नही कर सकते है, इसलिये हम यह तय नही कर सकते हैं कि उसमे चेतना है या नही। इस तरह की समस्याओं के बारे मे डगलस होफ्स्टैडटर और डैनीयल डेन्नेट ने अपनी पुस्तक “द माइंड्स आई” मे चर्चा की है।
व्यावहारिक दृष्टिकोण से हम ट्युरींग की जांच प्रक्रिया का प्रयोग कर सकते है और किसी भी वस्तु को आत्म-चेतन मान सकते है जब वह एक निर्धारित जांच प्रक्रिया मे सफल होकर अपने आप को आत्म-चेतन सिद्ध कर दे। मानवों मे भी यह विश्वास कि अन्य व्यक्ति भी आत्म-चेतन है, इसी तरह की मान्यताओं पर आधारित है: हमारे पास एक जैसे अंग है, हमारे पास एक जैसे मस्तिष्क है, इसलिये यह मानना कि सामने खड़ा व्यक्ति भी आत्म-चेतन है विवेकपूर्ण होगा। अपने सबसे अच्छे मित्र के आत्म-चेतन होने पर कौन प्रश्न उठायेगा?  हालाँकि यदि हमारे सामने खड़ा व्यक्ति भले ही मानव जैसे व्यवहार कर रहा हो लेकिन  वह कृत्रिम मांसपेशीयों , कृत्रिम अंगो और न्युरल प्रोसेसर का प्रयोग कर रहा हो तो शायद हमारा निर्णय अलग हो।
कृत्रिम न्युरल नेटवर्क के उदय से कृत्रिम चेतना और भी रोचक हो गयी है, क्योंकि न्युरल नेटवर्क  हमारे मस्तिष्क के जैसे ही विद्युत संकेतो का प्रयोग करता है और हमारे मस्तिष्क द्वारा प्रयुक्त सूचना संसाधन के जैसे ही तरिको का प्रयोग करता है।
हालांकि यह सभी मानते है कि वर्तमान कंप्यूटर प्रक्रिया आधारित कृत्रिम मस्तिष्क कभी भी आत्म-चेतन नही हो सकता लेकिन क्या यह हम न्युरल नेटवर्क के बारे मे कह सकते है? यदि हम विभिन्न जैविक और कृत्रिम मस्तिष्कों के मध्य संरचनात्मक विभिन्नताओं को हटा दें तो यह मुद्दा धार्मिक बन जाता है। दूसरे शब्दो मे यदि हम माने कि मानव चेतना किसी दैविक शक्ति द्वारा प्रदान की गयी है तो यह स्पष्ट है कि कोई भी कृत्रिम वस्तु मे आत्म-चेतना नही आ सकती है। लेकिन यदि हम माने कि मानव चेतना एक  विद्युत न्युरल अवस्था है को जटिल मस्तिष्क द्वारा सहज तरिके से निर्मित है तब एक कृत्रिम आत्म-चेतन मस्तिष्क के निर्माण की संभावना प्रबल हो जाती है। यदि हम यह माने कि चेतना मस्तिष्क का भौतिक गुणधर्म है तब प्रश्न उठता है कि

कब कंप्यूटर आत्म-चेतन हो पायेगा ?

इस प्रश्न का उत्तर देना खतरनाक हो सकता है! लेकिन इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले हमे कंप्यूटर के आत्म चेतन होने के लिये एक ऐसी न्युनतम सीमा बनानी होगी, जिसके बिना एक मशीन आत्म-चेतना विकसीत नही कर सकती हो। हम यह मानकर चलते हैं कि आत्म-चेतना का विकास होने के लिये न्युरल नेटवर्क को कम से कम मानव मस्तिष्क के तुल्य जटिल होना चाहिये।
मानव मस्तिष्क मे लगभग 1012 न्युरान है और हर न्युरान लगभग 1013 अन्य न्युरानो से जुडा होता है, इस तरह इस नेटवर्क मे औसतन कुल 1015 सूत्रयुग्मन(synapses) होते है। कृत्रिम न्युरल नेटवर्क मे एक सूत्रयुग्म को एक वास्तविक संख्या (Floating point) के रूप रखा जा सकता है, वास्तविक संख्या को कंप्यूटर मे रखने के लिये 4 बाईट चाहिये। इस तरह से 1015 सूत्रयुग्म के लिये कुल 4*1015 बाईट(40 लाख गीगाबाईट) चाहीये होगी। चलो मान लेते है कि संपूर्ण मानव मस्तिष्क को जैसे व्यवहार करने के लिये 80 लाख गीगाबाईट चाहीये होगी, इसमे हमने न्युरान द्बारा उत्पन्न संकेतो और भिन्न आंतरिक मस्तिष्क अवस्थाओं को संरक्षित रखने के लिये आवश्यक जगह भी जोड ली है। अब प्रश्न उठता है कि इतनी कंप्यूटर स्मृति कब तक उपलब्ध होगी ?

 इतनी कंप्यूटर स्मृति कब तक उपलब्ध होगी ?

पिछले 30 वर्षो मे RAM की क्षमता हर वर्ष ज्यामितीय रूप से हर चार वर्ष मे दस गुनी होते जा रही है। नीचे दी गयी सारणी मे 1980  से अब तक सामान्य निजी कंप्यूटरों मे लगी RAM दर्शायी गयी है।
RAM क्षमता का विकास
RAM क्षमता का विकास
इन आंकड़ो की सहायता से हम वर्ष और RAM क्षमता के मध्य एक गणितिय संबंध प्राप्त कर सकते है।
byte=10[(year-1966)/4]
उदाहरण के लिये इस समीकरण से प्राप्त कर सकते हैं कि 1990 मे एक निजी कंप्यूटर मे 1 मेगा बाईट RAM थी, 1998 मे एक निजी कंप्यूटर मे 100 मेगा बाईट RAM थी। इस सूत्र की सहायता से किसी भी वर्ष मे किसी निजी कंप्यूटर मे कितनी RAM होगी इसका अनुमान लगाया जा सकता है।(हम मानकर चल रहे हैं कि RAM क्षमता इसी दर से बढते जायेगी।)
वर्ष = 1966+ 4log10 (bytes)
अब हमे यह ज्ञात करना है किस वर्ष मे किसी निजी कंप्यूटर मे 80 लाख गीगा बाईट की क्षमता प्राप्त होगी।  इस सूत्र मे हम इस संख्या को रख देते है और हमे उत्तर प्राप्त होता है:
वर्ष = 2029
यह एक मजेदार संयोग है कि टर्मीनेटर फिल्म मे भी इसी वर्ष स्कायनेट आत्म-चेतन हुआ था।
अब इस परिणाम का अर्थ को पूरी तरह से समझने के लिये प्रथम हमे कुछ और अन्य तथ्यों पर भी  गौर करना होगा। सबसे पहले गणना की गयी दिनांक एक आवश्यक शर्त के लिये है लेकिन कृत्रिम चेतना के लिये वह संपूर्ण शर्त नही है। इसका अर्थ है कि एक शक्तिशाली कंप्यूटर जिसमे लाखों गीगाबाईट RAM हो कृत्रिम चेतना के लिये पर्याप्त नही है। इसके अतिरिक्त भी कई सारे कारक है, जैसे कृत्रिम न्युरल नेटवर्क के सिद्धांत मे विकास, मानव मस्तिष्क के जैविक प्रक्रिया को ज्यादा अच्छे तरीके से समझना। मानव मस्तिष्क और कंप्यूटर मे सबसे बड़ा अंतर समस्याओं को हल करने की विधि मे है। कंप्यूटर को इस तरह से निर्देश दिये जाते है किं वह कोई  त्रुटि ना करे, वह जिस तरह से निर्देशो का पालन करते है वह मानव मन को हास्यास्पद लगेगा। यदि किसी मानव से पूछा जाये कि किसी भी दो क्रमिक  पूर्णांक संख्याओं के योग को दो से भाग दिया जाये तो क्या उत्तर पूर्णांक मे आयेगा? मानव इसका उत्तर देगा “नहीं” क्योंकि वह उत्तर जानता है। लेकिन जब यही प्रश्न कंप्यूटर से पूछा जाये, वह उत्तर नही जानता। वह उत्तर पाने के लिये गणना प्रारंभ करेगा। वह सबसे पहले 1 और 2 को जोडेगा और परिणाम मे आये 3 को 2 से भाग देगा , परिणाम आयेगा 1.5, अर्थात “नही”। अब कंप्यूटर अगला युग्म 2 और 3 लेकर प्रक्रिया दोहरायेगा। कंप्यूटर यह प्रक्रिया तब तक दोहरायेगा जब तक उसे उत्तर “हां” ना मिले। इस उदाहरण मे उसे “हां‘’ कभी नही मिलेगा और वह इस चक्र मे फंस जायेगा। किसी मानव को उसकी गणन प्रक्रिया जबरन रोकनी होगी। कंप्यूटर यह समझने मे असमर्थ है कि उसे इस गणन प्रक्रिया मे कभी “हाँ” मे उत्तर नही मिलेगा। हम कंप्यूटर मे यह सूचना डाल सकते है कि  “किसी भी दो क्रमिक पूर्णांक संख्याओं के योग को 2 से भाग देने पर पूर्णांक नही मिलेगा”। अब इस सूचना के डालने के बाद अगली बार कंप्यूटर इस प्रश्न का उत्तर दे पायेगा। लेकिन समस्या यह है कि ऐसे लाखों प्रश्न है, जो मानव मस्तिष्क सहज रूप से उत्तर दे सकता है और उन सभी प्रश्नों के उत्तर को कंप्यूटर मे सूचना के रूप मे भरना असंभव है। मानव के साथ ऐसा नही है, उसे आप बस गणित से सामान्य नियमों के बारे मे बता दे और वे अपने ज्ञान के आधार पर किसी भी अन्य गणितीय समस्या को हल कर लेंगें। मानव के पास समझ है लेकिन कंप्यूटर के पास केवल नियम और निर्देश।
ये सभी कारक किसी आत्म-चेतन कंप्यूटर के निर्माण की दिनांक के अनुमान को असंभव सा बना देते है। एक तर्क यह दिया जा सकता है कि यह गणना तो निजी कंप्यूटर के लिये की गयी है जोकि इस क्षेत्र मे उच्च स्तर का तकनीकी विकास नही है। यह भी तर्क दिया जा सकता है कि इतनी RAM किसी नेटवर्क के कंप्यूटरो द्वारा या हार्ड डिस्क की स्मृति के आभासी स्मृति (Virtual Memory) प्रबंधन द्वारा भी उपलब्ध करायी जा सकती है। लेकिन हम किसी भी गणना पद्धति को लेकर चले उपर गणना की गयी तिथि तो ज्यादा से ज्यादा कुछ वर्ष ही पहले लाया जा सकता है।
इतने सारे विचार विमर्श के पश्चात प्रश्न आता है कि

एक आत्म-चेतन मशीन की आवश्यकता क्यों है?

नैतिक मूल्यों को एक तरफ रख कर सोचा जाये तो यह तय है कि आत्मचेतन मशीन का निर्माण एक मील का पत्थर होगा और तकनीकी क्षेत्र मे एक क्रांति होगा। यह मानव मन के नये क्षितिज को छूने की सनातन चाहत के लिये सबसे बड़ी प्रेरणा होगी और विज्ञान विकास मे एक नया मोड होगा। एक ऐसे कृत्रिम मस्तिष्क का निर्माण जो जैविक मस्तिष्क पर आधारित हो, हमारे ज्ञान के तेजी और भरोसेमंद तरीके से स्थानांतरित करने मे सहायक होगा और अमरता की ओर एक कदम होगा। मानव एक कमजोर शरीर के बंधन से मुक्त हो कर कृत्रिम अंगो  की सहायता से अमर हो जायेगा और इन कृत्रिम अंगो मे मस्तिष्क भी शामिल होगा। इस अमर शरीर के प्रयोग से मानव ब्रह्मांड के उन भागो की यात्रा कर सकेगा जिनमे जाने के लिये सैकडो वर्ष लग सकते है। वह परग्रही सभ्यता की तलाश मे अनंत यात्रा पर जा सकेगा, सौर मंडल की मृत्यु पर नये घर की तलाश मे जा सकेगा, श्याम विवर की ऊर्जा के उपभोग के रास्ते की तलाश मे जा सकेगा, इसके अतिरिक्त वह मानव मन को प्रकाशगति से अन्य ग्रहो पर भेज सकेगा।
बाह्य अंतरिक्ष मे बुद्धिमान जीवन की खोज 1972 के पायोनियर 10 यान से प्रारंभ हो गयी थी, इस यान मे मानव सभ्यता और पृथ्वी ग्रह के बारे मे सूचनायें है। मानव प्रजाति द्वारा की गयी सभी खोजो मे नाभिकिय ऊर्जा से परमाणु बम तक, जेनेटिक इंजीनियरींग से मानव क्लोम तक सबसे बड़ी समस्या रही है कि तकनीक को नियंत्रण मे कैसे रखा जाये, जिससे वह मानव जाति के विकास मे सहायक हो, उसके विनाश मे नही। अगला प्रश्न है कि

आत्म-चेतन मशीन को मानव नियंत्रण मे कैसे रखा जाये ?

इस प्रश्न का उत्तर आइजैक आसीमोव अपनी कहानी मे “रन अराउंड” मे दे चुके है। उन्होने आत्मचेतन मशीन को मानव नियंत्रण मे रखने के लिये तीन नियम बनाये है। उनके अनुसार हर आत्मचेतन मशीन को इन तीन नियमों का पालन करना होगा। ये तीन नियम है
  1. कोई रोबोट किसी मानव को हानि नही पहुंचायेगा या अपनी किसी निष्क्रियता द्वारा किसी मानव को हानि पहुंचने नहीं देगा।
  2. रोबोट मानव द्वारा दिये गये निर्देशो का पालन करेगा बशर्ते वे निर्देश नियम एक का उल्लंघन ना करते हों।
  3. रोबोट  स्वयं के अस्तित्व की रक्षा करेगा बशर्ते उसकी रक्षा मे नियम एक और दो का उल्लंघन ना हो!
कुछ अन्य कहानीकारों ने इन नियमों मे कुछ कमियाँ भी निकाली है लेकिन ये तीन नियम मानवता पर किसी मानव निर्मित आत्म चेतन मशीन द्वारा आक्रमण से बचने के लिए एक आधार बन सकते है। आत्म चेतन मशीन के निर्माण तक आवश्यकता अनुसार इन तीन नियमों को और भी प्रवर्धित किया जा सकता है।
स्टार ट्रेक का एन्ड्राइड लेफ्टीनेंट कमांडर डाटा
स्टार ट्रेक का एन्ड्राइड लेफ्टीनेंट कमांडर डाटा

आत्म-चेतन मशीन और नैतिकता

मशीन/रोबोटो मे आत्मचेतना का उद्भव कुछ नैतिक प्रश्नो को भी जन्म देता है।  स्टार ट्रेक के एक एपीसोड मे आत्मचेतन रोबोट के स्वामित्व का प्रश्न उठाया गया था, इस धारावाहिक मे लेफ्टीनेंट कमांडर डाटा एक आत्म चेतन रोबोट है। इस एपीसोड मे प्रश्न था कि डाटा को फेडरेशन की संपत्ति माना जाये या एक स्वतंत्र आत्मचेतन व्यक्तित्व। अंत मे डाटा की विजय हुयी थी और उसे एकस्वतंत्र आत्मचेतन व्यक्तित्व माना गया था। लेकिन कुछ और प्रश्न रह जाते है।
  1. जब रोबोट आत्मचेतन है तो उन्हे मानवो के समकक्ष माना जाये ?
  2. क्या उनके भी मानवाधिकार के जैसे रोबोअधिकार होंगे ?
  3. मानवो मे दासता प्रथा का अंत हो चुका है, इस परिप्रेक्ष्य मे आत्मचेतन रोबोटो का स्वामित्व किसका होगा ?
  4. मानवो और आत्मचेतन रोबोटो के अधिकारो मे संतुलन किस तरह रखा जाये कि वे एक दूसरे के सहअस्तित्व मे रह सके जिससे मैट्रिक्स या टर्मीनेटर जैसी स्थिति उत्पन्न ना हो।

मानवता की गरिमा पर हमला

1976 मे जोसेफ वेइजेनबम ने कहा था कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता का प्रयोग उन पदो के प्रतिस्थापना के लिये नही किया जाना चाहिये जिन पदो के लिये सम्मान, जिम्मेदारी और सावधानी की आवश्यकता हो। उदाहरण स्वरूप:
  • ग्राहक सेवा प्रतिनिधि (वर्तमान मे इस पद के लिये ध्वनि आधारित सेवा तकनीक का प्रयोग हो रहा है और ग्राहको की परेशानी का एक कारण भी है क्योंकि इस सेवा मे एक मानवीय पहलू का अभाव होता है।)
  • चिकित्सक
  • सेवा टहल के लिये आया
  • न्यायाधिश
  • पुलिस आफीसर
जोसेफ वेइजेनबम का मानना था कि इन सभी पदो के लिये वास्तविक मानवीय भावनाओं की आवश्यकता होती है। यदि इन पदो को मशीनों से प्रतिस्थापित कर दिया जाये तो हम अपने आप को समाज से विमुख, अवमुल्यित और कुंठित बना देंगे। कृत्रिम बुद्धिमत्ता का इस तरह से प्रयोग मानवता की गरिमा पर हमला होगा।

निष्कर्ष

आत्मचेतन मशीन संभव है लेकिन कब ? इस प्रश्न का सही उत्तर पाना कठिन है। किसी आत्म चेतन मशीन का निर्माण कई सारे नये नैतिक और तकनीकी प्रश्नों को जन्म देगा, इन प्रश्नों के उत्तर तकनीक के विकास के साथ मिलते जायेंगे। इस विकास के मार्ग मे ढेर सारे विरोध भी होंगे, जिनमे से कुछ धार्मिक, नैतिक रूप के भी होंगे, लेकिन विज्ञान और तकनीक के विकास मे ये विरोध हमेशा से रहे है। इतना तय है कि भविष्य आत्मचेतन मशीनो और मानवो के सह-अस्तित्व का होगा।

हिग्स बोसान, नोबेल पुरस्कार, धर्म और भारत

 
 
 
 
 
 
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 वैज्ञानिक पीटर हिग्स और फ्रांसोआ एंगलर्ट
वैज्ञानिक पीटर हिग्स और फ्रांसोआ एंगलर्ट
स्विट्जरलैंड में महाप्रयोग के दौरान ब्रह्मांड का सबसे छोटा कण खोजने वाले दो वैज्ञानिकों को इस साल भौतिक शास्त्र के नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया है। इस कण ही खोज पिछले साल हुई है।
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ब्रिटेन के 80 साल के वैज्ञानिक पीटर हिग्स और बेल्जियम के फ्रांसवा एंगलर्ट को भौतिकी के लिए 2013 का नोबेल पुरस्कार दिया जाएगा। उन्होंने इस अति सूक्ष्म कण हिग्स बोसान के अस्तित्व के बारे में 1964 में ही भविष्यवाणी की थी। नोबेल पुरस्कार समिति ने कहा है कि इस भविष्यवाणी के बाद यह बताना संभव हुआ कि हिग्स कण का भी द्रव्यमान होता है।
दोनों वैज्ञानिकों को 80 लाख क्रोनर की इनामी राशि दी जाएगी। पिछले साल जुलाई में दुनिया के सबसे बड़े प्रयोग के बाद स्विट्जरलैंड की सर्न(CERN) प्रयोगशाला ने इस सूक्ष्म कण के अस्तित्व का एलान किया था। इसके बाद से ही इन दोनों को नोबेल पुरस्कार का दावेदार बताया जाने लगा।
पुरस्कार की घोषणा करते हुए रॉयल स्वीडिश अकादमी ऑफ साइंसेज ने एक बयान में कहा, “पुरस्कृत सिद्धांत पार्टिकल भौतिकी के मानक का केंद्रीय हिस्सा है, जो बताता है कि हमारे ब्रह्मांड का निर्माण कैसे हुआ।”
हिग्स कण का सिद्धांत 1964 में एडिनबरा यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक प्रोफेसर पीटर हिग्स ने अपनी टीम के पांच सदस्यों के साथ दिया। प्रोफेसर हिग्स ने तब कहा था कि एक दिन विज्ञान हिग्स कणों तक पहुंच जाएगा। उन्होंने इस दिन के बारे में कभी कहा था, “मुझे अपने जीवन में ऐसा होने की उम्मीद नहीं है और मैं अपने परिवार वालों से कहूंगा कि वह फ्रिज में कुछ शैंपेन रख दें। एक न एक दिन विज्ञान यहां तक पहुंच ही जाएगा, तब फ्रिज वाली शैंपेन निकाल कर जश्न मनाया जाएगा।” हालांकि हिग्स के जीते जी न सिर्फ इस कण के अस्तित्व का पता चला, बल्कि उन्हें इस विशाल खोज के लिए नोबेल पुरस्कार भी दिया जा रहा है। यानी उनके लिए फ्रिज से शैंपेन निकालने का वक्त आ गया है।
बोसान कणों की अवधारणा भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस ने रखी थी। बोस के ही नाम पर इन कणों को बोसान कहा जाता है।
इस विषय पर मुझे फ़ेसबुक पर बालेंदु स्वामी जी के विचार पढने मिले जो नीचे प्रस्तुत है:
हिंग्स बोसॉन को इस बार का नोबेल मिला है। इस प्रयोग से जुड़े और विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टेफन हाकिंग जोकि स्वयं नास्तिक हैं, उन्होंने पिछले दिनों मजाक करते हुए कहा था कि इस प्रयोग से सिद्ध हो गया है कि ये दुनिया किसी ईश्वर ने नहीं बनाई, क्योंकि वो तो हम नास्तिकों के लिए नर्क बनाने में व्यस्त था। परन्तु हमारे देश में आस्थावान भेड़ जानने का प्रयास भी नहीं करना चाहते कि इसके पीछे असल कहानी क्या है?
स्विट्ज़रलैंड में हुए इस प्रयोग ने ये सिद्ध कर दिया है कि ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। परन्तु धार्मिक लोग केवल इसके नाम ‘गॉड पार्टिकल’ की वजह से हल्ला मचा रहे हैं कि विज्ञान ने ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित कर दिया है। मेरा इन धार्मिक लोगों से विनम्र निवेदन है कि कुछ कहने के पहले कृपया बात को समझा करें और थोड़ी खोज भी कर लें तो बढ़िया रहेगा। केवल भारतीय समाचार टीवी चैनलों को देखकर अपनी अवधारणा न बनायें कि “भगवान मिल गए“। इनको तो अपनी न्यूज़ बेचनी है वो तो ये भी बता देंगे कि, कौन से मिले, मुरली वाले, धनुष वाले, या क्रास वाले! जो वैज्ञानिकों या भक्तों को नहीं दिखता वो इनको अपने स्टूडियो में बैठे बैठे ही दिख जाता है। आइये अब जरा इसके नाम की कहानी भी जान लीजिये। असल में इसका नाम ‘गॉड डेम पार्टिकल’ था, और 83 वर्षीय वैज्ञानिक ‘पीटर हिग्स‘ एक नास्तिक व्यक्ति हैं। और वो खुश नहीं थे जब कि इसका उपनाम ‘गॉड पार्टिकल’ रखा गया क्यों कि वो सोचते हैं कि ये नाम शायद धार्मिक लोगों को नाराज कर देगा, क्यों कि इस प्रयोग के द्वारा असल में सिद्ध तो ये होना था कि ईश्वर का अस्तित्व नहीं है और इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक वैज्ञानिक घटना थी। ये ‘गॉड पार्टिकल’ नाम तो असल में ‘लिओन लेदरमन’ की पुस्तक “द गॉड पार्टिकल” से लिया गया है। परन्तु इस प्रसिद्ध पुस्तक का नाम भी प्रकाशक ने रखा है, मूल रूप से ‘लिओन लेदरमन’ ने अपनी पुस्तक का नाम ‘गॉड डेम पार्टिकल’ रखा था। डेम जो कि अंग्रेजी में एक गाली है! ये ईश्वर को नकारने के लिए है न कि स्वीकारने! निष्कर्ष ये है कि ‘गॉड डेम पार्टिकल’ को शोर्ट करके इसका नाम ‘गॉड पार्टिकल’ रख दिया गया। पर देखो तो सही कि इससे धार्मिक भी खुश और नास्तिक भी खुश। पीटर हिग्स के बारे में ये सब बातें मैं कोई अपने मन से नहीं बल्कि ‘पीटर हिग्स’ के वीकिपीडिया पेज में पढ़ के कह रहा हूँ ।
परन्तु बेचारे ‘पीटर हिग्स’ को पता नहीं था कि हमारे भारत के धार्मिक भक्त लोग इससे कोई नाराज नहीं होंगे बल्कि इसी में से अपना मनमाना अर्थ निकाल के साबित करने का प्रयास करेंगे कि अब विज्ञान ने ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित कर दिया है और टीवी चैनल वाले तो पूरे दिन यही राग गायेंगे कि ‘भगवान मिल गए’ और ये भी बताएँगे कि वो क्या पहने थे और कैसे दिखते थे! खैर ये हमारा धार्मिक भारत है, जहाँ पढ़े लिखे लोग भी सत्य और असलियत को स्वीकार नहीं करना चाहते बल्कि विज्ञान को धर्म के साथ जबरदस्ती जोड़कर, जो कि पूरी तरह अवैज्ञानिक है, धर्म और ईश्वर को विज्ञान की कसौटी पर कसने का असफल प्रयास करते हैं। आपने देखा और सुना होगा आजकल ये एक नया फैशन है कितने ही गुरु और धर्म प्रचारक हर धार्मिक उलजुलूल बातों को कहते हैं कि ये तो ‘साइंटिफिक’ है। जिससे कि पढ़े लिखे लोग भी उनकी बात का विश्वास करें और दुर्भाग्यवश वो करने भी लगते हैं, क्यों कि हजारों सालों के संस्कार और मान्यताएं उनकी पढ़ाई से जादा मजबूत होकर सामने खड़ी हो जाती हैं! तभी तो यहाँ निर्मल बाबा और कुमार स्वामी जैसे लोग अपना धंधा चमकने में सफल रहते हैं और इन्हीं पढ़े लिखे अनपढ़ों को कृपा और आशीर्वाद बेचकर हजारों करोड़ की कमाई कर के अथाह संपत्ति इकठ्ठा कर के अय्याशियाँ करते हैं।